अब तो यह साफ हो जाना चाहिए कि झूले पर साथ बैठकर पेंगें लगाने से राजनयिक सफलता नहीं मिलती। यदि ऐसा होता तो फिर लद्दाख में जो हुआ, वह हर्गिज नहीं होता।
चीन कोई पाकिस्तान नहीं है, जिसके प्रधानमंत्री की उसके सेना प्रमुख के आगे न चलती हो। चीन में तो राष्ट्रपति ही सर्वेसर्वा है और उसके चाहने से ही वहां कुछ भी होता है। फिर जब प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति चिनफिंग भारत में साथ-साथ मैत्रीपूर्ण माहौल में रहे, तो दोनों अपने मन की बात एक-दूसरे से क्यों नहीं कह सके और एक-दूसरे के मन की बात क्यों नहीं समझ सके? दोनों ने अगर खुलकर एक-दूसरे से बात की होती तो उन्हें क्या एक-दूसरे की सहमति या असहमति के बिन्दुओं का पता न चलता? हो सकता है, पता भी हो। तो क्या हम सबों को यह जानने का हक नहीं कि यदि उन दोनों को असहमति के बिन्दुओं की जानकारी थी तो उन्होंने फौजियों को क्यों मरने-कटने के लिए छोड़ दिया और अगर मिलने-जुलने, बातचीत करने से भी उन्हें असहमति के बिन्दुओं की भनक तक न लगी तो फिर झूले पर साथ-साथ बैठकर पेंगे भरने की जरूरत क्या है? किसी सैलानी की तरह मौज-मस्ती अगर प्रयोजन था, तो वह भरपूर सिद्ध हुआ। पर दोनों देशों के बीच अच्छे रिश्तों के लिए अगर यह सब किया गया तो फिर क्यों आज रिश्तों में खटास है?
जैसे कोई छोटा बच्चा फेल हो जाने पर अपना रिपार्ट कार्ड माँ-बाप से छिपा लेता है, वैसे ही क्या किसी देश का प्रमुख किसी राजनयिक वार्ता की असफलताएं अपने देशवासियों से छिपाकर रख सकता है? महज सुन्दर-सुन्दर पोज में, सुन्दर सुन्दर बैकड्राप के साथ फोटो खिंचवा कर राजनयिक वार्ता को सफल बताने का प्रयास कुछ वैसा ही है, जैसे कि फेल हो जाने पर किसी बच्चें द्वारा अपने रिपोर्ट कार्ड से छेड़खानी करना। ऐसे में क्या यह सोचना गलत होगा कि हर महीने हमसे अपने मन की बात कहनेवाला व्यक्ति अपनी बातचीत में कितना-कुछ छिपा जाता है! यदि ऐसा ही करना है तो फिर मन की बात न करके उसे प्रेस विज्ञप्ति से काम चला लेना चाहिए।
देश पर संकट हो और उसे लेकर आपके मन में कुछ भी न चल रहा हो, ऐसा तो हो नहीं सकता। और जो बातें आपके मन में हिलोड़े ले रही हों, उन्हें आप जुबान पर न लाएं तो यह मन की बात कैसी? मन की बात मन में ही दबा देने का परिणाम देश ने अभी-अभी सुशान्त सिंह राजपूत की मौत के तौर पर देखा है। इसका दुखद पहलु ही होता है। यह सही है कि राष्ट्रहित में बहुत सी बातें कहीं नहीं जा सकतीं। पर क्या आप यह भी नहीं कह सकते कि अमुक वार्ता में हमारे बीच इन-इन बातों को लेकर पूर्ण सहमति बनी, जबकि इन-इन बातों पर सहमति बनाने की कोशिशें जारी है।
बच्चा जब माता-पिता से रिपोर्ट कार्ड छिपाता है, या उससे छेड़छाड़ करता है तो वह भूल जाता है कि माता-पिता से यह बात ज्यादा दिनों तक छिपी नहीं रह सकती। हमने भी देशहित की दुहाई देकर भारत-चीन सीमा विवाद को ढांपना तो चाहा, पर इससे हुआ क्या? देश तो देश, क्या हम इसे दुनिया से भी छिपा पाए? जिस रूप में वह अब प्रकट हुआ, क्या वह अधिक विद्रूप, अधिक विध्वंसक नहीं है?
मुझे याद है कि करगिल युद्ध में मेरे कुछ फौजी मित्र इसलिए मारे गए थे क्योंकि उन्हें वास्तविकता का पता ही न था। मौके पर उनकी हालत उस शिकारी के जैसे हो गई, जो गया तो था लोमड़ी का शिकार करने, और उसे वहां शेर से भिड़ना पड़ा। वह तो खैर हमारी खुफिया भूल थी, पर इसे हम असफल वार्ता के दुष्परिणाम के अलावा और क्या कहें? जिस तरह से कर्नल संतोष बाबू और उनके साथी जवान मारे गए, उससे तो यही कहा जा सकता है कि उन्हें स्थिति का कुछ भी पता न था। यह सोचकर मन सिहर उठता है कि लद्दाख की गालवान घाटी में जब मौत घात लगाए बैठा था, तो वहां वे सभी न सिर्फ अपने तिरंगे के साथ पहुंचे होंगे, बल्कि उनके सामने मोदी और चिनफिंग की झुला झुलती छवि भी रही होगी। और इसी से वे छले गए। लाठी-डंडों से कोई फौजी मारा जाता है भला?
अपनी खामियों को अपनी अंतड़ियों में फेसाए रखने से बीमारी ही बढ़ती है। सरकार की असफलताएं गिनाने से कोई देशद्रोही नहीं हो जाता। कोई बच्चा अगर इस डर से अपना रिपोर्ट कार्ड न दिखाए कि उसकी पिटाई हो जाएगी तो जान लीजिए कि वह खुद अपना भविष्य ही बर्बाद कर रहा है। पहली बार आज मुझे लगने लगा है कि मन की बात के नाम पर हम आज तक जो कुछ भी सुनते रहे, वह एक ऐसे बच्चे की नर्सरी राइम भर थी, जिसे मेहमानों के सामने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने के लिए खड़ा कर दिया गया हो। मेहमानों की मजबूरी है कि ताली तो बजानी है।