रंजन कुमार सिंह
टूटे चप्पलों के साथ चलना मुश्किल हो गया तो वह बीच सड़क पर ही बैठ गई।
सामने उसका मरद दो साल के बच्चे को सिर पर सम्हाले चला जा रहा था। आगे दूर क्षितिज पर कुछ धुंधली आकृतियां दिखाई पड़ रही थीं। वह चाह कर भी उनके साथ कदम से कदम नहीं मिला पाई थी और मजदूरों का वह जत्था उन्हें पीछे छोड़ कर कहां से कहां पहुंच गया था।
पीछे, दूर… बहुत दूर कोई आकृति उभरने लगी थी।
जल्दी ही एक साइकिल सवार उसकी तरफ बढ़ता दिखाई दिया। साइकिल के दोनो हैंडलों पर एक-एक झोला लटका था। पीछे के केरिअर पर टीन का एक छोटा कनस्तर था और सवार की पीठ पर लटकानेवाला बैग।
अगर उन्हें अपनी साइकिल न देनी पड़ती तो वे भी आज साइकिल पर ही गाँव जा रहे होते।
शायद वे रुक भी गए होते, पर मकान मालिक ने तो नाक में दम ही कर रखा था, भाड़ा न चुकाया तो घर में रहने न दूंगा।
जहां दाना-पानी के लाले पड़े हों, वहां घर का किराया कहां से आता? ऐसे में उन्होंने फैसला कर लिया गाँव जाने का। अपना सामान बेचकर उन्होंने साइकिल खरीदी कि इससे कुछ सहूलियत हो जाएगी, पर गाँव के लिए निकलने को हुए तो मकान मालिक ने उसे रखवा दिया भाड़े के ऐवज में।
गोबर पलटकर पीछे लौट आया था और उसे हाथ देकर उठने को कह रहा था, “झुनिया, इसी तरह तुम रह-रहकर बैठती रही तो हम महीने भर में भी घर पहुंचने से रहे”।
“अब और नहीं चला जाता”, कहते हुए उसने अपने पैर फैला दिए और उसका सात महीने का पेट और भी बाहर निकल आया।
गोबर ने बच्चे को सिर से उतार कर झुनिया की गोद में दे दिया और खुद पास में ही पसर रहा।
जिस हाइवे पर एक समय आठों पहर गाड़ियां साँय-साँय दौड़ती थी, वहां आज दूर-दूर तक उनका नामो-निशान भी न था।
बैठने पर हड्डियां तड़क उठीं। पैर के फफोले टिसटिसाने लगे।
लॉक डाउन का आज उन्चासवां दिन था, पर लगता था मानो युग बीत गया।
फैक्ट्री में तालाबंदी तो पहले भी हुई थी, पर देश में तालाबंदी अब से पहले कभी नहीं हुई। पूरा देश सोशल डिस्टेंसिंग पर था।
***
“का?” झुनिया को उसने पहले-पहल सोशल डिस्टेंसिंग के बारे में बताया तो उसके पल्ले कुछ भी न पड़ा था।
“सोशल डिस्टेंसिंग”, उसने धीमें-धीमे उच्चारण कर के उसे समझाना चाहा था।
“सोसल … ?”
“छोड़ो, जाने दो। माँड़-भात रखा हो तो दे दो जरा।”
“भात तो नहीं, माँड़ सायत हो”, यह कहकर लोटा उसने गोबर के हाथ में पकड़ा दिया।
तलछट के माँड़ को एक बार में ही वह गटक गया। इससे कुछ तरावट महसूस हुई।
“अब और चाउर नहीं है पकाने को”, झुनिया के सहमे हुए स्वर उसे आज भी याद हैं।
***
“पानी है का?”
झुनिया ने गठरी में से निकालकर बोतल उसे थमा दी। इतना पानी भी न था उसमें कि हलक गीला हो पाता।
गोबर ने चारों तरफ फिर से नजर दौड़ाई। सड़क की दूसरी ओर एक ढाबा तो था, पर वहां कोई नहीं था। खाली बोतल लेकर वह उस पार चला गया। लौटा तो बोतल में पानी था।
“बंद था”, उसने पानी भरे बोतल को अपनी पत्नी की तरफ बढ़ाते हुए कहा।
झुनिया ने चुपचाप बोतल ले ली और गटगटाकर पूरा पी गई।
“नन्हका को भी तो पिला देती?”
झुनिया ने बिना कुछ कहे बच्चे का मुंह अपने स्तन से लगा दिया और उसके बालों पर हाथ फेरने लगी।
“उरेजवा में दूध है कि पिला रही हो?” कहते हुए गोबर उठा और फिर से बोतल भरने चला गया।
जब वह लौटा तो झुनिया चलने के लिए तैयार थी।
उसे नंगे पाँव देखकर गोबर ने पूछा, “तुम्हारा चप्पल?”
चप्पल ठीक नहीं हुआ था, सो झुनकी ने उसे गठरी में ही डाल दिया था।
अपनी पत्नी की खामोशी को समझते हुए गोबर ने अपनी चप्पल उसे दे दी और खुद नंगे पाँव चलने लगा। झुनिया ने मना किया, फिर भी न माना।
शाम ढलने तक वे चलते रहे। एक ढाबे को देखकर वे रुक तो गए, पर वहां न कोई आदम दिखता था, न आदम की जात। चूल्हा जाने कब से न जला था।
बार-बार हैंडपम्प चलाने पर पानी फूट निकला तो उसने अपना सिर उसके नीचे कर दिया। पानी का यह आराम शहर में कहां था? हाथ-मुंह धोने के बाद पैरों पर पानी डाला तो सूजे पाँव लरज उठे।
झुनिया ने खाट पर गोधड़ी बिछाकर नन्हका को उसपर सुला दिया था और अब अपने थके पैरों को खुद से ही दबाने लगी थी। पूरा पैर मानो पसपस कर रहा था। गोबर ने एक और खाट पास सरका ली। खाट पर पड़ते ही उसके मुंह से जोर की आह निकल पड़ी।
झुनिया ने अपना पैर दबाना रोककर पति से पूछा, “बहुते दरद है?”
“तुमको नहीं है क्या?”
झुनिया चुपचाप फिर से अपना पैर दबाने लगी।
“गणेश सही कहता है, ये लॉक डाउन नहीं, नॉक डाउन है गुरु।” गोबर ने अपने साथी कामगार की नकल उतारते हुए कहा।
झुनिया अपने पैरों को दबाते-दबाते ही बोली, “हम नहीं होते तो ठीक था।“
“कैसे?”
“तुम बाकी संगी-साथी के साथ-साथ चले जाते।“
गोबर ने कुछ न कहा।
झुनिया ही फिर बोली,“हमरे कारन ही ना तुम भी पिछुआ गए”।
“पेट से होकर भी तुम चल रही हो, ये क्या कम है?”
***
“ई तो कम है”, थैले को अंदाज से तौलते हुए ही झुनिया ने कहा था।
“हां, तो?”
“तुम त बोले थे कि सरकार सबको पाँच-पाँच किलो अनाज देगा?”
“जो है, उसी में संतोख करो। बहुतों को तो वह भी नहीं नसीब।”
“ई तीन किलो चाउर कब तक चलेगा?”
गोबर से कोई जवाब न पाकर धुनिया ही फिर बोली, एक बार जाकर देखो तो, सायत पगार मिलने लगा हो?”
“तुमको लगता है कि हमें फिक्र नहीं? रोज एक चक्कर मिल का लगा लेते हैं।”
मिल बंद होने के साथ ही मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा था। लॉक डाउन अगर एक हफ्ते आगे हो जाता तो महीने की पगार मिल जाती।
“बनिया का दुकान खुला है”, झुनिया ने कुछ इस अंदाज में कहा, जिसे उसका कथन भी माना जा सकता था और प्रश्न भी।
“हां, खुला है। तो?”
“उससे उधार पर थोड़ा दाल ले आओ।”
“बनिया भी तो उधार तब ही देता है, जब आगे के पगार का भरोसा हो।”
“तो बताओ का करें?”
“तुम्ही बताओ?”
“चलो, अभी का तो हो गया है। ठहर के सोचते हे कि का करें।”
“हां, हफ्ता, दस दिन में शायद ये लॉक डाउन भी खुल जाए।”
“तुम तो कहते थे बस एकइस दिन में खुल जाएगा ई लोक डान?”
“अब ये बढ़ गया तो हम क्या करें?”
“आउर ऊ खिचड़ी का का हुआ?”
“बंद हो गया।”
“काहे?”
“लाईन में झगड़ा हो गया, उसी से बंद कर दिया लोग।”
“हमको लगा कि तुमको लाईन में लगना नहीं जंचता, इसी से नहीं जाते हो।”
“चावल तो रख लो”, गोबर को अपनी पत्नी का कहा अखर गया, इसलिए उसने बात बदलते हुए कहा।
तसले में चावल उढेलते हुए झुनिया बोली, “सोहन बता रहा था कि उसने कोई बस ठीक किया है गाँओ जाने को। तुम भी काहे नहीं करते हो कोई इंतजाम?”
“बस ठीक किया था तो गया कहां?”
“काहे, का हो गया?”
“पुलिसवाले ने पकड़ लिया बस को। सोहन का पैसा भी गया और पुलिस ने सबको खूब सोंटा भी।”
“काहे सोंटा? कोई घरे जाएगा तो उसको मारेगा पुलिस?”
***
“सोंटा मारेगा सोंटा”, खाट पर लेटे-लेटे ही गोबर बुदबुदाया।
उसने बगल में देखा तो झुनिया बेटे को अपनी छाती पर धरे, धरे सो चुकी थी।
जाने कब उसकी भी आँख लग गई पता ही न चला।
हमेशा की तरह झुनिया, गोबर से पहले जग गई।
बेटे को खाट पर सुलाकर वह इधर-उधर शौच का स्थान ढूंढने लगी। सामने गुंजा की झाड़ियां दीख पड़ी। कोई उचित स्थान न पाकर उसने झाड़ियों का ही आसरा लिया। बैठे-बैठे ही वह झाड़ियों में लगी बेरियां देखती रही। लाल-लाल बेरियां समूचे में लथराई हुई थीं। उन्हें देख-देखकर उसकी भूख और बढ़ गई। कल सुबह में थोड़ा चना फांकने के बाद उन्हें कुछ भी नहीं मिला था। भला हो दूसरे संगियों का जो जत्थे में अपने घर जा रहे थे। उन्होंने ही दोनों को खाने के लिए चने दिए थे और नन्हका के लिए बिस्कुट।
फारिग हो चुकने के बाद झुनिया ने बुझे हुए चूल्हे की राख से अपना हाथ घिंसा और धुंधती की लाल-लाल बेरियां फिर से देखने लगी। भूख के मारे पेट हौड़ा जाता था।
उसने दो-एक बेरियां तोड़ीं और डरते-डरते उन्हें चखा।
मीठा है, बहुते मीठा, यह सोचते हुए उसने ढेर सारी बेरियां तोड़कर अपने आँचल में भर लीं और फिर गोबर के जगने का इंतजार करने लगी।
गोबर के जगने पर वह खुशी-खुशी बोली, जल्दी से हाथ-मुंह धोके आ जाओ। खाना तइय्यार है।
गोबर ने सवालिया नजर उठाया तो झुनिया की आँखों में उसे रहस्य और रोमांच का बोध हुआ। नित कर्म से निबटकर गोबर जब लौटा तो झुनिया नन्हका को बेरियां खिला रही थी। लाल-लाल बेरियों को देखकर गोबर की भूख भी एकदम से भड़क गई।
नन्हका को खिला चुकने के बाद पति-पत्नी भी खाने बैठ गए।
“मीठा तो नहीं है।”
“नहीं है?”
कहते हुए वे खाते रहे। दोनों भर-भर मुट्ठी बेरियों को फांकते जाते और बीच-बीच में पानी पीते जाते थे। बहुत दिनों के बाद दोनों ने इतना छक कर खाया था।
पेट भर गया तो उनका ध्यान अपने बेटे की ओर गया। वह औधे मुंह सो रहा था। उसकी पीठ नीला मालूम पड़ती थी। दोनों ने आशंका भरी नजरों से एक-दूसरे को देखा और आँखों ही आँखों में एक-दूसरे को आश्वस्त किया कि हो न हो यह उनकी उनींदी आँखों का धोखा है।
ट्रेन की आवाज पास आती सुनाई पड़ रही थी, पर ट्रेन कहीं दिखाई नहीं देती थी। फिर वह आवाज दूर होती चली गई और जल्दी ही कहीं शून्य में खो गई।
थोड़ी ही देर में उनकी खुद की आँख भी लग गई और वे गहरी नींद सो गए।